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मुँह पर लटक आनेवाले बाल जिसकी / कालिदास
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रुध्दापाङ्गप्रसरमलकैरञ्जनस्नेहशून्यं
प्रत्यादेशादपि च मधुनो विस्मृतभ्रूविलासम्।
त्वय्यासन्ने नयनमुपरिस्पन्दि शङ्के मृगाक्ष्या
मीनक्षोभाच्चलकुवलयश्रीतुलामेष्यतीति।।
मुँह पर लटक आनेवाले बाल जिसकी
तिरछी चितवन रोकते हैं, काजल की चिकनाई
के बिना जो सूना है, और वियोग में
मधुपान त्याग देने से जिसकी भौंहें अपनी
चंचलता भूल चुकी हैं, ऐसा उस मृगनयनी
का बायाँ नेत्र कुशल सन्देश लेकर तुम्हारे
पहुँचने पर ऊपर की ओर फड़कता हुआ
ऐसा प्रतीत होगा जैसे सरोवर में मछली के
फड़फड़ाने से हिलता हुआ नील कमल
शोभा पाता है।