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मुंतज़िर कब से तहय्युर है तेरी तक़रीर का / फ़राज़

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मुन्तज़िर कब से तहय्युर है तेरी तक़रीर का
बात कर तुझ पर गुमाँ होने लगा तस्वीर का

रात क्या सोये कि बाक़ी उम्र की नींद उड़ गई
ख़्वाब क्या देखा कि धड़का लग गया ताबीर का

जाने तू किस आलम में बिछड़ा है कि तेरे बग़ैर
आज तक हर लफ़्ज़ फ़रियादी मेरी तहरीर का

जिस तरह बादल का साया प्यास भड़काता रहे
मैं ने वो आलम भी देखा है तेरी तस्वीर का

किस तरह पाया तुझे फिर किस तरह खोया तुझे
मुझ सा मुन्किर भी तो क़ाइल हो गया तक़दीर का

इश्क़ में सर फोड़ना भी क्या के ये बे-मेहेर लोग
जू-ए-ख़ूँ को नाम देते हैं जू-ए-शीर का

जिसको भी चाहा उसे शिद्दत से चाहा है "फ़राज़"
सि-सिला टूटा नहीं दर्द की ज़ंजीर का