मुआवजा / असंगघोष
तुम पियो या ना पियो
उसने पी रखी है दारू
भले ही तुम नियम से चलो
उसने कसम खा ली है
न चलने की
जो सरपट भागता आ रहा है
दस रुपया एण्ट्री दे,
बच सको तो
बचो उससे
नहीं तो रौंद दिए जाओगे
चकों तले,
मिनटों में
लग जाएगा मजमा
और होगा चका जाम,
हवा में नारे लहराएँगे
‘जिला प्रशासन मुर्दाबाद!’
‘पुलिस प्रशासन मुर्दाबाद!’
तमाशाई जुड़ जाएँगे
तुम्हारी लाश सामने सड़क पर रखकर
होगी भारी मुआवजे की माँग
कोई भी सांत्वना नहीं देगा
तुम्हारी पत्नी को
तुम्हारी माँ, बहन और पिता को भी
नारे लगाने की गति
तेज होती जाएगी
आएगी सायरन बजाती
पुलिस की गाड़ी
साथ में होगा एस.डी.एम.
छुटभैया सक्रिय होंगे
माँगेंगे मुआवजा
लाखों में
थोड़ी बहस
थोड़ी मानमनौवल के बाद
मिलेगा
पाँच हजार फक़त
मुआवजा!
तुम्हारी मौत का
माँ-बाप के आसरे का
बहन की राखी का,
तुम्हारी पत्नी के सिन्दूर पौंछने का
मुआवजा फक़त पाँच हजार?
अब मुर्दाबाद के नारे
”छुटभैया-जिन्दाबाद!“
में बदल जाएँगे
तालियाँ भी बजेंगी
एक गड़गड़ाहट!
पूरी तरह
संवेदनाहीन भीड़ की!
अन्त में लाश सड़क से उठा
टेम्पो में पटक
मुर्चरी भेज दी जाएगी
रोते पिता के काँपते हाथ में होगा
मुआवजा फक़त पाँच हजार
तुम्हारी मौत का, या
चका-जाम खुलने का?
नेतागिरी का या
तुप्त होती संवेदना का?
हाँ यही है मेरा शहर
संवेदना शून्य
रंगमंच पर
बदलते पात्रों का
यही नाटक
रोज मंचित करने
बार-बार मरता है शहर!