मुक्तक-1 / सोनरूपा विशाल
सृष्टि जैसी कोई कब अनूपा हुई
माँ सी पावन कोई कब स्वरूपा हुई
प्यार को गीत ग़ज़लों में लिखती रही
मैं हृदय से तभी सोनरूपा हुई
आँसुओं में जो बह नहीं पाए
दिल के अंदर भी रह नहीं पाए
दर्द वो लिख दिए हैं गीतों में
हम किसी से जो कह नहीं पाए
जो परिचित हो गया उसको अपरिचित कर नहीं पाए
कि हम एहसास के सागर को सीमित कर नहीं पाए
तुम्हें हम भूल जाएं ये तुम्हारी राय थी लेकिन
तुम्हारे साथ गुज़रे पल विसर्जित कर नहीं पाए
खिले थे फूल लेकिन खुशबुओं से रिक्त था उपवन
नदी का भी हुआ ठहरे हुए पानी से परिवर्तन
तुम्हारे मायने मेरे लिए क्या हैं ये तब जाना
तुम्हारे बाद जब मैंने गुज़ारा शून्य सा जीवन
रौशनी की चमक और भी बढ़ गयी
डालियों की लचक और भी बढ़ गयी
आप जबसे मिले हैं यक़ीं जानिए
ज़िन्दगी की ललक और भी बढ़ गयी
चाँद ने जैसे चाँदनी पाई
होंठ ने जैसे अँजुरी पाई
तुमको पाकर मैं सच बताऊँ तो
अब लगा है कि ज़िन्दगी पाई
इंद्रधनुषी छटा सी उभर जाऊँगी
मैं गुलाबों की सूरत सँवर जाऊँगी
हाँ अगर आपसे दूरियाँ हो गईं
पँखुरी पँखुरी मैं बिखर जाऊँगी
ख़्वाबों पर अपना ही पहरा होता है
मन केवल इक पल पर ठहरा होता है
इश्क़ में दिन तो होते ही हैं सोने से
रातों का भी रंग सुनहरा होता है
उसको मेरा मलाल है अब भी
चलिए कुछ तो ख़याल है अब भी
दफ़्न है फिर भी साँस है बाक़ी
कोई रिश्ता बहाल है अब भी
मुस्कुराहट के गुल बाँटने लग गया
देर तक आसमां ताकने लग गया
जब तेरे ध्यान में भीगने मैं लगी
मन मेरा मोर सा नाचने लग गया