मुक्तक-2 / सोनरूपा विशाल
फूल हूँ मैं बहार जैसा वो
स्वर हूँ मैं और सितार जैसा वो
मैं हूँ नग़मा मिलन की घड़ियों का
और नग़मा निगार जैसा वो
शोख़ मासूम अल्हड़ हंसी चाहिए
अब न आंखों में कोई नमी चाहिए
जो तेरे सँग गुज़ारी थी मैंने कभी
मुझको वापस वही ज़िन्दगी चाहिए
अश्क चेहरा मेरा नहीं धोते
वो हंसी पल कभी नहीं खोते
रश्क करती मैं अपनी क़िस्मत पर
तुम किसी और के नहीं होते
प्यार तो है मगर बन्दगी खो गई
है नदी सामने तिश्नगी खो गई
वक़्त कैसा ये आया है, तुम और हम
जी रहे हैं मगर ज़िन्दगी खो गयी
भावनाओं का ज्वार होता है
सिंधु जितना अपार होता है
अर्थ देता है ज़िंदगानी को
प्यार जीवन का सार होता है
जो मिला ही नहीं वो खोता क्या
कोई बंजर ज़मीं पे बोता क्या
प्यार है तो है ये जहां क़ायम
प्यार होता नहीं तो होता क्या
ज़िन्दगी का श्रृंगार पाएंगे
खार में भी बहार पाएंगे
धर्म सबके यही बताते हैं
प्यार देंगे तो प्यार पाएंगे
जो किया जाए वो ही कहन कीजिये
मन में संकल्प इतना गहन कीजिये
काग़ज़ों के तो रावण जलाए कई
रावणी वृत्तियाँ भी दहन कीजिये
लोकजीवन की हैं आस्था राम जी
संस्कारों की हैं इक प्रथा राम जी
त्याग, तप, वीरता, सौम्यता के धनी
दूर करते हैं सबकी व्यथा राम जी
कोई शय अब बहारों से ख़ाली न हो
फूल जिस पर न हों ऐसी डाली न हो
आने वाले समय से है ये कामना
ज़िंदगानी में ग़म की बहाली न हो