भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुक्तक-71 / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

तुम्हारी साँवरी सूरत पिया आँखों मे बसती है
तुम्हारा नाम ले कर ही मेरी दुनियाँ सरसती है।
तुम्हारी इक झलक पाऊँ बसे हो धड़कनों में तुम
तुम्हारा प्यार पाने को ये दीवानी तरसती है।।

निशि दिन नाम चतुर्दिक गूँजे जय जय करते आये द्वारे
सावन मास सुहावन आया बम बम भोले के जयकारे।
श्रद्धा के कुछ फूल सजा कर आये थे प्रभु शरण तुम्हारी
दर्शन किया मुक्ति भी पायी गोली खा कर प्राण सिधारे।।

फेर कर मुँह हो तुम उधर बैठे हम मगर रूठ कर किधर जायें।
तेरी तस्वीर है निगाहों में साथ रहती है हम जिधर जायें।
तुमने ग़र छोड़ दिया साथ मेरा साँस सीने में अटक जायेगी
इस तरह जीने से तो अच्छा है नाम ले कर तुम्हारा मर जायें।।

कभी शीतल पवन, आंधी, कभी तूफान जैसी है
कभी नफरत कभी शोहरत कभी अरमान जैसी है।
कभी हँसती कभी खिलती कभी बरबाद होती है
बदन में आत्मा रहती किसी मेहमान जैसी है।।

तेरी मासूम पलकों पर सिहरते ये अधर रख दूँ
तेरे कदमों में साथी अपनी साडी रहगुज़र रख दूँ।
तू बाँहों में मुझे लेकर भुला दे मेरे ग़म सारे
लिपट जाऊँ लता जैसी तेरे सीने पे सर रख दूँ।।