देखो  धरती अम्बर  में  है   कितनी  दूरी
रहते समक्ष  फिर भी  मिलने  में मजबूरी।
कल्पना क्षितिज की इसीलिये तो होती है
यों चाह मिलन  की  सपनो  में  होती पूरी।।
हर सुबह आस की स्वर्ण किरण जल जाती है
सन्ध्या  ढलती  तो  आशा  भी  ढल  जाती  है।
उम्मीद  नहा  कर  गहन  निशा  के  सागर  में
यों बार बार  पागल  मन  को  छल  जाती  है।।
गुमसुम है मन, कलम मूक है क्या बोले 
घड़ी घड़ी जब  यों  धरती  अम्बर  डोले ?
बहुत  किया  अन्याय  ज़माने  ने  भू  पर
इसीलिये   हैं  उसने  रुद्रनयन  खोले।।
प्रकृति से छेड़ करना आदमी  का पाप  होता है
न जीवों को मिटाओ उन्हें भी सन्ताप  होता  है।
न काटो पादपों को, मत  करो  बारूद  की  वर्षा
प्रकृति का कोप जीवन के लिए अभिशाप होता है।।
बहुत दिनों तक सहती रही न कुछ बोली
आज क्रोध से भर तीसरी  आँख  खोली।
है   प्रदूषणों   ने   इतना   बेहाल   किया
हुई   बहुत   बेचैन  तभी  धरती  डोली।।