मुक्तक / गोपालदास "नीरज"
बादलों से सलाम लेता हूँ
वक्त क़े हाथ थाम लेता हूँ
सारा मैख़ाना झूम उठता है
जब मैं हाथों में जाम लेता हूँ
ख़ुशी जिस ने खोजी वो धन ले के लौटा
हँसी जिस ने खोजी चमन ले के लौटा
मगर प्यार को खोजने जो गया वो
न तन ले के लौटा न मन ले के लौटा
है प्यार से उसकी कोई पहचान नहीं
जाना है किधर उसका कोई ज्ञान नहीं
तुम ढूंढ रहे हो किसे इस बस्ती में
इस दौर का इन्सान है इन्सान नहीं
अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई
आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुज़री
था लुटेरों का जहाँ गाँव, वहीं रात हुई
हर सुबह शाम की शरारत है
हर ख़ुशी अश्क़ की तिज़ारत है
मुझसे न पूछो अर्थ तुम यूँ जीवन का
ज़िन्दग़ी मौत की इबारत है
काँपती लौ, ये स्याही, ये धुआँ, ये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी