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मुक्तक / माटी अपने देश की / महावीर प्रसाद ‘मधुप’

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रंज हावी न हो, मुस्कुराते चलो!
राह मुश्क़िल न हो, गुनगुनाते चलो!
फूल या शूल, जो भी मिलें पंथ में,
प्यार से कंठ सबको लगाते चलो!

देश अगर संकट में हो,
तन-मन-धन कर दो अर्पण।
मातृभूमि का ‘मधुप’ सदा,
वन्दनीय होता कण - कण।

उद्यम करने से न सताता कभी अभावो का अभिशाप।
जाप निरंतर करने से सब होते नष्ट मनुज के पाप।।
दूर कलह से रहता मानव साधे रहने से नित मौन।
जागरूक रहने पर जग में पास फटकता है भय कौन।।

दर्द भरा हो दिल में फिर भी बरबस मुसकाना पड़ता है।
काँटों का भी कुसुम बता कर मन को समझाना पड़ता है।
क़िस्मत का है खेल कहीं तो सुधापान के हित मनुहारें,
और कहीं विष पीने को भी मज़बूरन जाना पड़ता है।।

सुरभित सुमन दिये औरों को स्वयं सदा काँटे स्वीकारे,
वितरण करता रहा सुधा, निज अधरों पर धर लिए अंगारे।
प्राण लुटाए अपने जिन पर वही प्राणघातक बन बैठे,
मझधारों की बात कहूँ क्या निगल गए जब नाव किनारे।।

मन के निकट जिन्हें समझा था, वे जीवन से दूर हो गए,
जिन अरमानों को पाला था, वे सब चकनाचूर हो गए।
घाव अगर रहते तो शायद मरहम कभी लगा भी लेता,
रिसते-रिसते ज़ख़्म जिगर के अब तो सब नासूर हो गए।।

जितना मधु मिल सका लुटाया, किया न अपने हित संचय है,
हँस कर हर क्वारी पीड़ा के साथ रचाया निज परिणय है।
फिर भी इस निष्ठुर दुनिया को मैं संतुष्ट नहीं कर पाया,
जीवन एक पहेली बन रह गया यही मेरा परिचय है।।

पंथ फूलों का कभी चाहा न, काँटो पर चला हूँ,
दीप-सा परहित तिमिर-तूफान में अविरल जला हूँ।
तुम डराते क्या, कथाएँ कष्ट की मुझको सुनाकर,
मैं अभी तक पीर की ही गोद में हँस-हँस पला हूँ।।

सावन के बादल शोले बरसाते हैं,
पुरवैया के झोंके तीर चलाते हैं।
बुरे वक़्त में औरों की क्या बात कहूँ,
तन के कपड़े भी बैरी बन जाते हैं।।

कौन अपना है यहाँ, कहना कठिन है,
पीर पर्वत बन गई, सहना कठिन है।
राह जीने की नज़र आती न कोई
बोलना अपराध, चुप रहना कठिन है।।

जीवन पथ के राही! यह तो कर्मभूमि है प्यारे।
कर्म तुझे करना ही होगा संतत सांझ-सकारे।।
तूफ़ानों से घबरा कर गर हिम्मत हार गया तो,
डुबेगी मझधार, लगेगी कभी न नाव किनारे।।

भीड़ बहुत है अपनो की पर सब के सब हैं बहरे,
क़दम-क़दम पर लगे हुए हैं बाधाओं के पहरे।
रहा भरोसे औरों के, साहस को त्याग दिया तो,
कभी ने पूरे हो पाएंगे तेरे स्वप्न सुनहरे।।

ग़म खाते हैं, आँसू बेबस पी लेते हैं,
रहते हैं ख़ामोश लबों को पी लेते हैं।
साँस-साँस में त्रास, घुटन, तड़पन, बेचैनी,
जीने वाले ऐसे में भी जी लेते हैं।।

पतित पातकी को परहित का पाठ पढ़ा जाते हैं,
कलुषित मन पर पावनता का रंग चढ़ा जाते हैं।
समय-समय पर बिरले कोई संत धरा पर आकर,
निज पौरूष से मानवता का मान बढ़ा जाते हैं।।

संतो के यश-वर्णन में असमर्थ स्वयं को पाता,
साहस कर कुछ आगे बढ़ता, फिर पीछे हट जाता।
वे असीम कैसे शब्दों की सीमा में बंध पाएँ?
चरणों में संतों के श्रद्धा के सुमन चढ़ाता।।

पावक में तप कर जो चमके, वह सोना कुंदन होता है,
संघर्षों से हार न माने, वह यौवन होता है।
साँसों की सरगम को ही जीवन कह देना उचित न होगा,
जग में जो कुछ कर दिखला दे, वह जीवन जीवन होता है।।

शरण दे सके पीड़ा को वह अन्तःकरण मिलता है,
शीश झुके चरणो में जिसके वह आचरण नहीं मिलता है।
कानों से तो सुन लेते हैं, सुनने वाले बात हमारी,
दिल से दर्द सुने जो ऐसा वातावरण नहीं मिलता है।

मिथ्या मद में फूल गर्वित गात्र बनो!
सच्चे ज्ञान उपासक विनयी छात्र बनो!
पात्र दया के बनने में कुछ सार नहीं,
बन सकते हो तो श्रद्धा के पात्र बनो!

श्रम की कूची से जीवन का चित्र सँवारो!
रंग की सादगी का भर कर सौन्दर्य निखारो!
जियो सहित सम्मान, चलो ऊँचा कर माथा!
जितनी हो चादर उतने ही पैर पसारो!

जीवन का मत चित्र घिनौना होने दो!
सदाचार को कभी न बौना होने दो!
उठो, करो पुरूषार्थ, कभी मत अपने को,
नियति करों का मात्र खिलौना होने दो!

हर आँसू के आनन पर उल्लास लिखो!
हर पतझर के माथे पर मधुमास लिखो।
दयानन्द ऋषिवर से विषपायी बनकर,
लिख पाओ तो जीवन का इतिहास लिखो।

बिना खाए कभी ठोकर न उज्जवल ज्ञान मिलता है,
बिना दुख दर्द को झेले न सुख का दान मिलता है।
झुकाना विश्व को चाहे अगर, श्रम का पुजारी बन!
अरे मानव! ने केवल मांगने से मान मिलता है।।

मन में हो उत्साह अगर तो कब टिकती तन की मज़बूरी,
श्रम ही केवल कर सकता है मांग सफलता की सिंदूरी।
चाव जिसे होता चलने का बाधाओं से कब डरता है?
पाँव अगर गतिमान रहें तो मिट जाती मंज़िल की दूरी।।

मन करो चट्टान-सा दृढ़, स्वेद-कण तन से बहाओ!
सिद्धि की है चाह तो संकल्प को साथी बनाओं
देखते ही रह गए तट पर खड़े तो क्या मिलेगा,
चाहिए मोती अगर, तो सिंधु में गोते लगाओ।

मत कर शिक़वा-गिला किसी से, और लबों को सी ले!
मिले ग़मों का ज़हर अगर तो घूँट-घूँट कर पी ले।
किया भरोसा औरों का तो साथी पछताएगा।
जीना है तो इस दुनिया में अपने बल पर जी ले।

मत हसद की आग में ख़ुद का जला।
टल सके तो टाल औरों की बला।
राज़ है दिल के सुकूँ का बस यही,
दूसरो का कर भला, होगा भला।

हिम्मत से ही हर काम किया जाता है।
अमृत से पहले गरल पिया जाता है।
इस दुनिया में देता न सहारा कोई,
अपने दम पर ही आप जिया जाता है।।

बाधाओं के साथ खेलना पड़ता है,
पथ का हर पर्वत धकेलना पड़ता है।
देता कोई साथ किसी का नहीं यहाँ
अपना संकट आप झेलना पड़ता है।।

विचलित होकर नहीं किनारा मिलता है,
टूटे दिल को नहीं सहारा मिलता है।
दुख से हो भयभीत, पलायन करने से
नहीं मुसीबत से छुटकारा मिलता है।।

कुसुम कली को काँटों में रहना पड़ता है,
साथ समय की धरा के बहाना पड़ता है।
दुख-दर्दाें से आँसू नहीं बचा पाते हैं,
संकट जो आ पड़े उसे सहना पड़ता है।।
ज़ख़्म अगर गहराता है, गहराने दो!
दर्द अगर बढ़ता हो तो बढ़ जाने दो!
सतवंती किरणों को रोक न पाएगा,
अंधियारे को अपना रौब दिखाने दो।

कोई नहीं किसी का दुनिया मतलब का है मेला,
सब का अपना अलग-अलग है झंझट और झमेला।
इधर-उधर क्या ताक रहा है हिम्मत को अपना ले।
अपनी गठरी आप उठा कर चल दे पथिक, अकेला।

रात देख भयभीत न हो कल होगा नया सवेरा।
मत रहने दे घोर निराशा का मानस में डेरा।
अपने पथ पर तुझे अकेले चलना होगा राही।
साथ नहीं मंज़िल तक कोई दे पाएगा तेरा।

कैसा भी हो आखि़र वक़्त बदलता है,
सूरज ढलता भी है और निकलता है।
पतझर के रोके रूकता मधुमास नहीं,
असफलता की चिरसंगिनी सफलता है।।

ऊबते संघर्ष से पुरूषार्थ को देखा नहीं,
कर्मयोगी के लिए कुछ नियति का लेख नहीं।
हो कठिन चाहे, असंभव कुछ नहीं उद्योग से,
कौन कहता है, बदलती भाग्य की रेखा नहीं।

नींद गहरी सो गया आदमी,
जुल्मतों में खो गया आदमी,
देवता ही देवता आते नज़र,
भीड़ में गुम हो गया आदमी।