मुक्तावली / भाग - 1 / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
प्रकृति-विकृति गुन-अगुन जड़-चेतन, रूप-अरूप
आदि-अन्त सित-असित जय रंग-विरंग-अनूप।
मानस हंस - द्विज वंसक अवतंस ई मानस-वासी हस
तेजि नीर निर्गुन पिबओ सगुन छीरहिक अंश।।1।।
आस्वादन - रस अरूप आस्वाद्य द्रव द्रव्य रूपहिक सत्त्व
रूप अरूप अभेद थिक आस्वादनक महत्त्व।।2।।
भाव - रूप पुजब की भाव बिनु भाब न होय अभाव
बिनु संकल्प विकल्प की निर्विकल्प धरि धाव।।3।।
मन सदन - विषय शुल्क दय मदन! तोँ कयलह कत दिन बास
रिक्त करह मन सदन केँ किनल मदनरिपु खास।।4।।
पतंग - अंग अंग केर रंग रुचि कयल जगत बदरंग
आइ त्रिशूलिक शूल पर जरओ अनग पतंग।।5।।
श्याम रंग - कनक कामिनी चित्त पट ताबहिँ चमकय जोर
जा धरि ध्यानक कुची लय श्याम रंग नहि बोर।।6।।
चन्द्रचकोर - उदित नखत कत गगनमे रुचय न चित्त चकोर
नित सतृष्ण दृग पुट पिबय कृष्णचन्द्र चितचोर।।7।।
बृज रज - कालिन्दी रबिनन्दिनी, वन्द्या वृन्दा - धाम
राधा माधव प्रीति रुचि, ब्ज-रज कोटि प्रमान।।8।।
मुरलिका - सद् वंशा व्रजवासिनी कलभाषिनि श्रुति - जन्य
हरि - अधरामृत स्वादिनी धनि धनि मुरलि अनन्य।।9।।
व्रज-वन - जय करीर! जनि काँट पर कल्पवल्लि वलि जाथि
जय व्रज वन! पशु वन’क हित जत सुरमुनि ललचाथि।।10।।