मुक्तावली / भाग - 8 / सुरेन्द्र झा ‘सुमन’
ज्योति - कच कचकच, कुच-कुच कुचो, मुख रुख, जघन जघन्य
नर-अरि नारी सूझल ई उगितहिँ ज्योति अनन्य।।71।।
कनक-कामिनी - थिर आसन कर सुमरनी, दृग युग मुनि बनि संत
तदपि झलक चित-पट खचित कनक कामिनी हंत।।72।।
अवसाद - मुख आखर, कर अर्ध्य जल, ढारल शिला पवित्र
रस लपट मन लबन केँ गला न सकलहुँ मित्र।।73।।
मन बिहंग - आँखि पाँखि लय विहग मन रूप क विपिन उड़ैछ
विषय विषम शर बेधि बधि मदन व्याध खसबैछ।।74।।
जीव पुरुष - सगुन प्रकृति जड जग, अगुन पुरुष परम चैतन्य
सगुन अगुन जड चित मिलित जीव पुरुष नहि अन्य।।75।।
अद्वैत - सत्ता सत आकार चित निराकार चैतन्य
आनन्दक अनुभूति रस नित अद्वैत अनन्य।।76।।
कृपा - माया रजनी, भ्रम तिमिर, पथ अगम दृग बन्द
पथिक न उबरय बिनु कृपा रजनीपतिक अमंद।।77।।
कवच - समर भूमि भव के न जन राग द्वेष शर बिद्ध
शमक अमंद कवच पहिरि बाँचथि केवल सिद्ध।।78।।
मरीचिका - भय आतप व्याकुल कतहु नहि छाया तरु तीर
मरु मरीचका मृग मनुज मरि पचि लहय न नीर।।79।।
समतल - ने हर्षक गिरि शिखर ने शोक सिन्धु भसिआय
समता समतल बसि शमी सुख भूमिका समाय।।80।।