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मुक्तिगीत: महारास / मंजुला सक्सेना
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जब भाव समाधी लगती है तब प्रेम की वर्षां होती ज्यूँ-
घन बरस निरंतर उमड़ घुमड़, ले बहा चले धरती को ज्यूँ
बादल, बिजली, पागल मारुत, मिलकर धरती को पिघलाते
विचलित, स्खलित कर भू स्तर, सागर में ज्यूँ पहुंचा जाते
पर ध्यान समाधि लगती जब, चेतना शेष रह जाती है
व्यक्तित्व विसर्जित हो जाता, अस्तित्व बोध ही रह जाता
न रूप, न नाम, न कुछ कर्त्तव्य, एक मात्र शांत अस्तित्व बोध
वह महामोक्ष, वह महाज्ञान, वह महा रास को महा बोध!
स्र्तिष्टि के कण कण में मुखरित प्रकृति-पुरुष का युगल रास
इच्छा स्फुरित, होती पूरी दे ईश्वर सत्ता का आभास
है पूर्ण ब्रह्म, अदृश्य, अनंत, उसका न नाम, न रूप न रंग
वह एक सत्य जो वर्णनातीत. वह मौन, शांत परिवर्तन हीन