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मुक्तिमंत्र / अमरेन्द्र

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सुबह हुई कि ले बैठे फिर अपना रोना-धोना
उसी बात को, किस्मत में मेरी तो दुख ही दुख है
गयी अमावस पर जो उगता, वही अमावस पुख है
मुझ पर ही डायन-योगिन का होता जादू-टोना ।

क्या सपने में इसी बात की उल्टी गिनती करते
रात-रात भर भूत-प्रेत बन अपने क्या आ जाते
नींद लगे, तो लगता होगा वे सब गला दबाते
रोज भोर में कहते होगे, बचे रात को मरते ।

मैं तुमसे कहता हूँ, अपने घर से बाहर निकलो
लोगों के संग बैठो, बातें करो खुले में मन से
क्यों न कमल-सा ऊपर उठते कीचड़ के आसन से
जीवन का सुख तभी मिलेगा। लोकवेद है, लिख लो ।

पत्थर के प्राचीरों में रह मुक्ति कहाँ संभव है
मोक्ष मिलेगा वहाँ, जगत का जहाँ मधुर कलरव है ।