मुक्ति-द्वार के सामने (कविता) / प्रताप सहगल
अपने नाती के लिए
जब मेघ आता है घर में
घर में लाखों तारों और चंद्रमाओं की
उजास आ जाती है
जब मेघ आता है घर में
घर की दीवारों के पोर-पोर से
संगीत झरने लगता है
जब मेघ आता है घर में
छतों से भूर गिरने लगती है
रजनीगंधा महक उठती है उसी वक़्त
मुस्कराने लगता है हरसिंगार
जब मेघ आता है घर में
घोडों की टापों से भर जाता है घर
क्रिकेट की पिच बन जाता है
घर का दालान
और फुटबाल का मैदान हो जाती है
घर की छत
जब मेघ आता है घर में
अतियों के झूले
स्थिर हो जाते हैं
एक संतुलन बना कर
और
अहम् की गाँठें
टूट-टूट जाती हैं
कितने-कितने आकाशों की सलवटें
ब्रह्मांडों के तनाव
टूटने लगते हैं मेघ के पाँवों के अंगूठों की नोंक पर
जब मेघ आता है घर में
तब मैं सचमुच मैं नहीं होता
पता नहीं चलता
और मैं गुज़र जाता हूँ
युगों और कल्पों के अनुभवों के बीच
तब सारा संसार
मेघमय हो जाता है
हम होतें हैं मेघ की बाल-यात्रा के
भोक्ता
सचमुच हमें पता नहीं चलता
कि हम एक मुक्ति-द्वार के सामने हैं