मुक्ति / उपासना झा
जीवन को गलाता था कई हिमयुगों का शीत
मैं रोज़ देखता था अपनी छाती पर जमते पहाड़
रोज भोगता था ज्वालामुखियों का ताप
वर्षों आकाश के नीचे गूँजता रहा एक ही शब्द
आकाश-गंगाओं से झरती रही उदासी
तुमसे मिलने की इच्छा ने मुझे दिए
कई सागरों का खारापन
कई पहाड़ो की खाइयाँ
कई मीलों लंबी संकरी गुफाएँ
दुनिया भर का अँधेरा भर आया था मेरी नसों में
देह में खून की जगह दौड़ता था दुःख
दुनिया का चेहरा टटोलती थी तुम अपनी हैरत भरी आँखो से
होंठो पर पहने रखती थी पिछली कई रातों के इंतज़ार की चुप्पी
कई-कई जन्मों का प्रेम लिए माथे पर
कई-कई जन्म लेता रहा धरती पर
जन्म-मृत्यु के सत्य के बीच
कंठ में विष की तरह धरा मैंने
तुम्हें न खोज पाने का विषाद
तुम्हारे गर्भ से आती गंध ही केवल चीन्हता था मैं
तुम्हारी गोद में अपना मुँह छिपाकर
फूटकर बहना ही मेरी मुक्ति थी