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मुक्ति / जया जादवानी

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जैसे कि अधूरी कविता मुक्त नहीं करती
न अधूरा प्रेम, न अधूरा जीवन
कितना कुछ छूट जाता है
माँग करते हुए भरे जाने की
तमाम उम्र बेसहारा
काग़ज़ के टुकड़े पर
अस्तित्व की तलाश के सफ़र में
मुक्ति उसके पूरेपन में भी नहीं है
एक पूरी कविता मांग करती है
बार-बार समझे, दोहराने, करीब आने की
बीच की खाली जगहों में समाने की
और...और...ज़रा-सा...और
हो सकती है शब्दों के बीच भी इतनी जगह
कहाँ पता था पहले
साधा था बहुत जोड़कर
गिर गया कितना कुछ
अधूरा जीवन कि गोल चरखा
न ख़बर कि कहाँ जाना
न यह कि रास्ता कितना बाक़ी
न यह कि कहाँ, किसके साथ, क्यों
और पूरापन...
ऊब, सन्नाटे और अकेलेपन से भरा
ऊबा हुआ परमात्मा जैसे
बार-बार झाँक रहा हो नीचे
जाने हँस रहा है या है उदास
कुछ पता नहीं चलता पूरेपन का
जो भी राग वह गाता है
जाने कितनी बार जा चुका गाया
बन्द कर दी हैं लोगों ने उसकी क़िताबें
वे हैरान हैं कि वह चुप है
वे हैरान हैं कि पूरापन हो सकता है चुप कैसे
वे ख़ुश हैं कि वे चुप नहीं हो सकते
पूरा जीवन कि
किसी चित्रकार ने बनाई हो
एक बहुत सुन्दर पेंटिंग
और भूल गया हो उसमें भरना साँस
वह किसी की भी हो सकती है
पर नहीं है किसी की
और पूरे प्रेम का भ्रम
कौन जानता है कि
भोक्ता कौन है, साक्षी कौन
कौन किनारे पर खड़ा है
और वह कौन जो
बीच में अड़ा है।