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मुख छवि विलोक जो अपलक / सुमित्रानंदन पंत

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मुख छबि विलोक जो अपलक
रह जायँ न, वे क्या लोचन?
विरहानल में जल जल कर
गल जाय न जो, वह क्या मन!
तुझको न भले भाता हो
प्रेमी का यह पागलपन,
उर उर में दहक रहा पर
तेरे प्रेमानल का कण!