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मुख मलीन मृग लोचन शुष्क / बाबू महेश नारायण
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मुख मलीन मृग लोचन शुष्क
शशि की कला में बहार नहीं थी;
लब दबे यौवन उभरे
रति की छटा रलार नहीं थी।
गरभ, हवस, अफ्सोस, उम्मीद,
प्रेम-प्रकाश, भय चंचल चित
थे यह सब रुख़ प, नुमायां उसके,
कभी यह कभी वह,
कभी वह कभी यह,
मुख चन्द्र निहार हो यह विचार कि प्रेम करूं दया दिखलाऊं।