मुझको अपना कहने वालों, थोड़ा-थोड़ा और नोच लो / प्रदीप कुमार 'दीप'
मुझको अपना कहने वालों, थोड़ा-थोड़ा और नोच लो,
मेरे इस बेजान बदन में, अब भी जान बची है शायद॥
तूफानों को आमंत्रित कर, चिट्ठी लिख दो अंगारों को।
आंधी की डोली ले आएँ, यह बोलो चार कहारों को।
चीख-चीख कर कहता है ये, सन्नाटा सब चले गये हैं,
अब इस बस्ती में मेरी इकलौती छान बची है शायद॥
पथराई आंखों से मेरी स्वप्नों ने कर लिया किनारा।
पानी बिना मीन के जैसे, तड़प रहा है मन बंजारा।
पीड़ा और विवशता के रथ, दरवाजे पर खड़े हुए हैं।
मेरे इन अधरों पर अब भी कुछ मुस्कान बची है शायद॥
हमको कुछ भी दिया न इसने, नहीं बाद में ताने देना।
जिसने भेजा था उसके घर, मुझे चैन से जाने देना।
गाओ गीत रुबाई गजलें आंगन में बरगद के नीचे,
धड़कन भी दिल में अब कुछ दिन की मेहमान बची है शायद।