भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझको इंकार आ गया शायद / अमित
Kavita Kosh से
उनको अब प्यार आ गया शायद
मुझको इंकार आ गया शायद
एक बेचैन सी ख़मोशी है
बक्ते-बीमार आ गया शायद
कुछ चहल-पलह है ख़ाकी-ख़ाकी
कोई त्योहार आ गया शायद
होश गु़म और लुटे-लुटे चेहरे
कोई बाज़ार आ गया शायद
खून की बू सी अभी आई है
अपना अख़बार आ गया शायद