भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुझको ज्ञात नहीं / रमानाथ अवस्थी

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

सच मानो मुझको ज्ञात नहीं

पाँवों मे राहें भर-भरकर
चलता जैसे लहरों पर स्वर
जिसको दोनों ही प्यारे हैं
नीची धरती, ऊँचा अम्बर

अन्तर से जो न निकल पाए
पथ पर ऐसे कितने आए
सच मानो मुझको ज्ञात नहीं

नयनों के अनगिन जलतारे
टूटे कितना, पर कब हारे
जीवन में यह भटके ऐसे
जैसे तम में सपने प्यारे

जीवन में कितने अश्रु बहे
आँखों में कितने और रहे
सच मानो मुझको ज्ञात नहीं

मैं रोक नहीं पाया मन को
करने से प्यार किसी तन को
जो प्यास ख़तम कर दे मेरी
मैं ढूँढ़ थका ऐसे धन को

मेरे जीवन की प्यास बड़ी
या मैं, या मेरी सांस बड़ी

सच मानो मुझको ज्ञात नहीं