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मुझको रोके थी अना और यार कुछ मगऱूर था / ऋषिपाल धीमान ऋषि
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मुझको रोके थी अना और यार कुछ मगऱूर था
जिस्म से था सामने लेकिन वो दिल से दूर था।
मैं मदद के वास्ते नाहक वहाँ चीखा किया
घर पड़ौसी के न जाने का जहाँ दस्तूर था।
हाथ मेरे दोस्तो इस जुर्म में काटे गए
ताज के कारीगरों में मैं भी इक मजदूर था।
हाथ में सैयाद के मैं क्यों नहीं आता भला
पंख थे ज़ख्मी मेरे और मैं थकन से चूर था।
क्यों मुझे मिलती तरक्की आज के माहौल में
सर झुकाना दुम हिलाना कुछ नहीं मंजूर था।