मुझे इन आते जाते मौसमों से डर नहीं लगता / सलीम अहमद
मुझे इन आते जाते मौसमों से डर नहीं लगता
नए और पुर-अज़ीयत मंज़रों से डर नहीं लगता
ख़ामोशी के हैं आँगन और सन्नाटे की दीवारें
ये कैसे लोग हैं जिन को घरों से डर नहीं लगता
मुझे इस काग़ज़ी कश्ती पे इक अंधा भरोसा है
कि तूफ़ाँ में भी गहरे पानियों से डर नहीं लगता
समंदर चीख़ता रहता है पस-मंज़र में और मुझ को
अँधेरे में अकेेले साहिलों से डर नहीं लगता
ये कैसे लोग है सदियों की वीरानी में रहते हैं
इन्हें कमरों की बोसिदा छतों से डर नहीं लगता
मुझे कुछ ऐसी आँखें चाहिएँ अपने रफ़ीक़ों में
जिन्हें बे-बाक सच्चे आईनों से डर नहीं लगता
मिरे पीछे कहाँ आए हो ना-मालूम की धुन में
तुम्हें क्या इन अँधेरे रास्तों से डर नहीं लगता
ये मुमकिन है वो उन को मौत की सरहद पे ले जाएँ
परिंदों को मगर अपने परों से डर नहीं लगता