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मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ / अज्ञेय

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मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ।
जब कभी पथ पर जाते हुए तुम्हारे अदृश्य चरणों की चाप मैं सुन लेती हूँ, और एक अकथ्य भाव से भर उठती हूँ जिसे तुम नहीं जानते, तभी मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ।
जब कभी अनजाने में तुम्हारे अपूर्व सौन्दर्य की एक झाँकी मिल जाती है, और मैं उसे देखते-देखते संसार के प्रति अन्धी हो जाती हूँ, तभी मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ।
प्रियतम! इस जीवन में और इस से पूर्व हजार बार मैं ने अपना जीवन तुम्हें अर्पण किया है, फिर भी मुझे जान पड़ता है, मैं चोर हूँ।

1934