मुझे जीने दो / अमरजीत कौंके
रोज़ रात को
मेरे भीतर सिद्धार्थ जागता
सपने में मुझे अर्थी लिए जा रहे
लोग दिखते
और हड्डियों में बदला बुढ़ापा दिखाई देता
और मेरे भीतर
सिद्धार्थ अंगड़ाई लेता
कहता-
चल मुक्ति की खोज कर
आदमी मिटता-मिटता मिट जाता है
और पैरों के निशान भी
मिटा देती है वक्त की रेत
मैं बेचैन-सा होकर
खिड़की से झांकते
आकाश की ओर देखता
तो सामने पिता का उदास चेहरा
और मुझसे पाँव न उठाया जाता
मेरी यशोधरा निश्चिन्त किसी ख्वाब में खोई
मेरा राहुल किसी सपने में मुस्कराता
सिद्धार्थ कहता-
चल अमरत्व की तलाश में निकल
आदमी मिटता-मिटता मिट जाता है
एक दिन
मैं फिर
उदासी की दलदल में धँसता
बेबसी, मोह और बेचैनी की
दोधारी तलवार पर चलता
दुविधा में भटकता
शून्य में लटकता
कभी टूटता, कभी जुड़ता
कभी चलता, कभी मुड़ता
फिर अचानक
मेरे भीतर से कोई इल्हाम होता
और मेरे भीतर से
'मैं' जागता
बोधबृक्ष के नीचे बैठे
सिद्धार्थ से मैं कहता-
मुझे जीने दो
मैं जीऊंगा
जैसे फूल खिलता
और मुरझा जाता है
मैं जीऊंगा
अपनी कविता में
मैं अपने बच्चों में
फिर उनके बच्चों में जीऊंगा
तुम मुझे जीने दो ।