मुझे जो बार-बार / अज्ञेय
मुझे जो बार-बार यह भावना होती है कि तुम मुझे प्रेम नहीं करतीं, यह केवल लालसा की स्वार्थमयी प्रेरणा है।
मैं अपने को संसार का केन्द्र समझ कर चाहता हूँ कि वह मेरी परिक्रमा करे। मुझे अभी तक यह ज्ञान नहीं हुआ कि केन्द्र न मैं हूँ न तुम; जिस प्रकार हमारा संसार मेरे और तुम्हारे बिना नहीं रह सकता, उसी प्रकार हम-तुम भी संसार से स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रखते। मैं, तुम और संसार, तीनों का एकीकरण ही हमारे प्रेम का सच्चा रूप है।
इस ज्ञान के उद्रेक में मैं फिर, अपनी स्वतन्त्र इच्छा से तुम्हें वरता हूँ। विवश हो कर नहीं, मूक अभिमान से दंशित हो कर नहीं-अपने, तुम्हारे, और संसार के अनन्त ऐक्य की संज्ञा से प्रेरित हो कर पुन: तुम्हारे आगे अपने को निछावर करता हूँ।
दिल्ली जेल, 28 नवम्बर, 1932