मुझे नहीं मिले गुलाब / प्रांजलि अवस्थी
आँखों की पुतलियों का रंग
कत्थई था
होंठों की फ़लियाँ मूंगिया रंगीं थीं
गालों पर चम्पई असर लिये
मैं प्रेमिका बनी
शब्दों की चाल ढाल भाषा
मेरे लिए हमेशा शालीन रही
सिंगार और श्रंगार हमेशा सौम्य रहा
प्रथम पुरूष की तरफ आकर्षण
प्रकृति की तरह हुआ
और प्रेम में
पृथ्वी की तरह मैं अडिग रही
प्रेम पत्रों की संदूकची महकती रही
कभी मेरे नाजुक स्पर्श से
तो कभी पुरूष उत्कंठा से
मुझे प्राप्त प्रेम पत्रों में
जब जब आकर्षण की भाषा संदिग्ध होती गयी
मैं पुनर्नवा में बदलती गयी
प्रेमी की आँखों में उगा हुआ सूरज
मुझे शीतल करता
उसके द्वारा थामीं गयीं मेरी हथेलियों में
मानो उँगलियों पर कँवल खिल जाता
शायद मेरी उँगलियों ने ही पढ़ी थी
पहली प्रेम की कविता
मौसम, वक्त और हालात
अपनी मर्जी के मालिक रहे
मुझे वह अहल्या कि तरह जड़ कर गये
मैं फिर वहाँ से तब तक नहीं हिल पाई
जब तक मेरी पीठ पर घास नहीं उग आई
मुझे मेरे प्रेमी में राम दिखते ही
मैं एक साधारण प्रेमिका से फूल हो गयी
शायद गुलाब का ही...
पर मुझे नहीं मिले कभी गुलाब