भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझे भी हारकर तेवर दिखाना पड़ गया आखि़र / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
मुझे भी हारकर तेवर दिखाना पड़ गया आखि़र
अमन के वास्ते पत्थर उठाना पड़ गया आखि़र
समय की माँग पर चेहरा बदलना लाज़िमी होता
हज़ा़रों ग़म छुपाकर मुस्कराना पड़ गया आखि़र
हमारे घर में रहकर जो हमारा घर जला डाले
हमें ऐसे चिराग़ों को बुझाना पड़ गया आखि़र
हमारे दिल ने जिस रिश्ते को रिश्ता ही नहीं माना
उसी रिश्ते को जीवन भर निभाना पड़ गया आखि़र
रहा बेटी का मेरी सर, मेरे सम्मान से ऊँचा
कभी झुकता न था जो सर झुकाना पड़ गया आखि़र
तेरे आने की जब आयी ख़बर तो सब भुला बैठा
उसी वीरान बस्ती को सजाना पड़ गया आखि़र