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मुझे हो के अपना दिये हैं वो तू ने / प्रमिल चन्द्र सरीन 'अंजान'
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मुझे हो के अपना दिये हैं वो तूने
कभी ग़म न मुझको दिये जो अदू ने
मेरे दिल का क्योंकर न हो जख़्म दिलकश
ये बक्शा है मुझको किसी ख़ूबरु ने
इधर मैं कि हंसकर सहे ज़ुल्म तेरे
उधर तू के पूछा नहीं हाल तूने
वो कूचे कि थी दिलकशी जिनमें तुझसे
तेरे हिज्र में हो गये सूने सूने
मेरी शय समझ कर मेरा हक़ समझ कर
मुझे सौंप दी दौलते-रंज तू ने
शबे-ग़म का कटना था दुश्वार लेकिन
सहारा दिया बढ़ के जामो सुबू ने।
फसुर्दा चमन को बहारें अता कीं
मेरे खून दिल ने मेरे ही लहू ने
ग़मो रंजो हिरामनो यासो मुसीबत
यही हैं तेरी बखशिशों के नमूने
मेरे दिल के सब राज़ इफशा किये हैं
रवां हो के आंखों से दिल के लहू ने
फिर 'अंजान' नग़में से गूंज उट्ठे दिल में
पुकारा मुझे फिर किसी खुश गलू ने।