मुझ में एक आकार टूटता है / महेंद्रसिंह जाडेजा
मुझ में एक आकार टूटता है
अब गांधी को गोली मारना और
ईसा को सूली पर चढ़ाना
यह रोज़ की घटना है ।
मोर के रंगीन पंख लगाकर कौवा नाचे
यह भी रोज़ की घटना है, ईसप !
आदमी का क़द घटता जा रहा है ।
राई के दाने जितना हो गया है आदमी का क़द
और इस आदमी को बाज़ार में वह सब मिलता है
जो घर में नहीं मिलता,
खेत में या खलिहान में नहीं मिलता ।
आदमी के क़द से उसके नाख़ून का क़द बढ़ गया है ।
इस शहर के ठीक बीच में
जगन्नाथ मंदिर की दहलीज पर आए
बूचड़ख़ाने में असंख्य पशु कटते रहते हैं ।
आश्चर्य है कि इन पशुओं की चीख़
भगवान को नहीं सुनाई देती
और चारों ओर छवाया है मनुष्यों का घूरा ।
मुझमें एक आकार टूटता है, ईसप!
यह तो एक बाल कथा है,
जैसे पेट में मरोड़ आती हो
यूँ घूमती रहती है लाल बसें यहाँ ।
चाय की केटली और पान के ठेले पर
कीड़े-मकोड़े की तरह लोग घूमते रहते हैं ।
रास्तों को लात मार-मार कर ठेले
कनखजूरे के पैरों की तरह रेंगते रहते हैं
और सबके चेहरे पर एक ही आँख है
और वह भी बिलकुल स्थिर
साँप की आंख की तरह
और सबके मुंह में से जीभ लपलपाती है
साँप की जीभ की तरह,
मानो,सब विषबेल पर लटकते साँप हों ।
मूल गुजराती भाषा से अनुवाद : क्रान्ति