भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुझ से नहीं होता यह / नंदकिशोर आचार्य
Kavita Kosh से
यह क्यों है कि
मैं जिन रास्तों से भी होकर
गुज़रा हूँ
वे सभी वहीं रूक जाने को
विवश हैं
जहाँ से आगे निकल पाना ही
मेरी यात्रा का होना है
यात्रा वरण है, विवशता नहीं।
दरअस्ल, ईश्वर एक अन्धी गली है
जहाँ प्रत्येक रास्ता चुक जाता है
और मेरे लिए रह जाता है
कि उस के किसी अँधेरे कोने में
अपनी गुदड़ी भी बिछा लूँ !
पर नहीं होता
मुझ से नहीं होता
और बाल नोचता लौट पड़ता हूँ
- यह जानता हुआ भी कि
अब अन्धे साँप की तरह
निरन्तर भटकते रहना ही
मेरी नियति रह गया है।
(1969)