भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुट्ठियों में वही टूटे पल / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

और फिर लंबी कतारें
वही ट्रैफिक-जाम-
बस-ट्रक और कारें

सीढ़ियों से लोग उतरे
हुए सडकें - बंद चेहरे
भागते ही रहे दिन भर
खोज में
कि कहाँ ठहरें

शाम लौटे
सोचते हैं
यह थकन कैसे उतारें

एक सागर भीड़ का
उसमें सभी डूबे हुए हैं
घने सायों से घिरे हैं
धूप से ऊबे हुए हैं

शहर टापू
और उसमें
जंगलों की हैं पुकारें

पीठ पर लादे खड़े हैं
दिन बिना-पहचान वाले
पाँव के नीचे जले सपने
फफोले और छाले

मुट्ठियों में
वही टूटे पल
इन्हें कैसे सँवारें