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मुतालआ की हवस है किताब दे जाओ / राही फ़िदाई
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मुतालआ की हवस है किताब दे जाओ
हमारे अह्द को सालेह निसाब दे जाओ
शहीर-ए-इल्म की झोली कमाल से ख़ाली
ख़ुदा के वास्ते कोई ख़िताब दे जाओ
कभी तो हुरमत-ए-सैराबी-ए-नज़र खुल जाए
समुंदरों को तिलिस्म-ए-सैराब दे जाओ
हक़ीक़तों को तमाशा नहीं बनाऊँगा
मुनाफ़िक़त की हवा है नक़ाब दे जाओ
तुम्हारी आख़िरी उम्मीद बन के लौटूँगा
विदा की घड़ियों का हिसाब दे जाओ
क़दीम रौशनियों से उन्हें शिकायत है
तो शप्परों का नया आफ़्ताब दे जाओ
कोई तो मशग़ला-ए-ना-मुराद जारी हो
ज़बाँ करे बदरिक़ा-ए-इंकिलाब दे जाओ
इसी में ख़ंदा-लबी शान-ए-बे-नियाज़ी है
हर एक तीर का साकित जवाब दे जाओ
सफ़र-ए-नसीब है ‘राही’ मिसाल-ए-बाद-ए-रवाँ
जहात-ए-शश की ज़माम ओ रेकाब दे जाओ