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मुनकिर-ए-हक़ / शहराम सर्मदी
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इक आवाज़ उभरती आ रही है
दूधिया सी रौशनी इक
पर्दा-ए-बीनाई से हो कर गुज़रती गुज़रती जा रही है
सल्ब होती जा रही है
क़ुव्वत-ए-इंकार भी
इक़रार भी
कुछ हो रहा है या कहूँ कुछ है
नहीं मालूम क्या है और क्यूँ कुछ है
इक अम्बोह-ए-फ़रावाँ
जौक़-अंदर-जौक़ सब अफ़राद
इक़रा की तरफ़ जाते हुए
और मैं उधर ग़ार-ए-हिरा की
चुहल-साला ख़ामुशी में
महव होता जा रहा हूँ
एक 'है' और इस क़दर मौजूद
ला-मौजूद भी 'है' और मैं
अब उस को ख़ुदा में क़ैद कर के
मुनकिर-ए-हक़ हो रहा हूँ
इन्दर अन्दर रो रहा हूँ