मुनीश की आत्महत्या पर / हरिवंशराय बच्चन
मुझे नहीं मालूम कि मरने के बाद
आदमी कि चेतना या स्मृति अवशिष्ट रहती है या नहीं...
पर कई रातों से
बारह-एक बजे के बीच--एक आवाज़ मेरे कमरे में गूंजती है...
"जमराज के पास आते जूतों की आवाज़ कोई सुन नहीं पाता है,
क्योंकि मरने के वक्त हर शख्स बे-होश हो जाता है,
लेकिन मैंने सुनी--
भक्ष-भक्ष-भक्ष --भकभक-भकभक--भकभक-भकभक...
पहले धीमी,फिर तेज़ होती,
फिर इतनी तेज़ होती,इतने पास आती
कि कानों को बहरा करती...
मैंने यमराज के जूतों की शक्ल भी देखी,
यह रेल के पहियों-सी गोल होती है,
कि इतनी देर में वह मेरे गर्दन को काटती-कुचलती निकल जाती है,
रेल की पटरी को कुछ दूर तक खून में रँगती...
मेरे पास घर था,घरनी थी,
रोज़ी थी,गोद ली बेटी थी,
कुछ शौक थे--साहित्य के,संगीत के,कला के,
विशिष्ट गो मैं न बन सका;
भाई-बन्धु थे,कुछ संगी-साथी;
सब कुछ किसे मिलता है ?
पर मेरे जीवन में कुछ ऐसा घोर घटा--
किसके द्वारा ?मैं नहीं बताऊँगा,पर,
आशा है आप समझ जायेंगे--
कि उसने मुझे बिल्कुल अकेला छोड़ दिया;
इतने बड़े संसार में--
सारहीन-सत्वहीन-तत्वहीन--
बच्चन दा,अकेलापन ज़िन्दगी पर बड़ा सब्र करता है.
मेरे सब्र से बाहर हो गया है.
मेरा सब कुछ खो गया--
मैं जीकर क्या करता ?
कहीं,कभी शांति मिल सकी तो मरकर--
यही एक विचार मेरे मन में उठता,उमड़ता,घुमड़ता,
आँसू बनकर बहता
और बर्फ बनकर छाती पर जमकर बैठ जाता.
पर मरकर मैंने शांति नहीं पाई
शांति की चाह भी नहीं रही !
बस इतना जाना कि जीवन-अस्तित्व
एक अशांत यात्रा है--आदिहीन...अंतहीन--
और मेरी आत्मा कुछ अशांति की ही खोज में
मारी मारी फिर रही है.
आपके पास तो नहीं है ?