भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मुमक़िन नहीं इश्क़ / शेखर सिंह मंगलम

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अब ख़्वाहिशों की शहादत से
दूर बहुत दूर जा रहे हैं
सनम हम अपनी आदत से।

जज़्बात-ओ-ख़यालात के
उसूल मेरे बोलते हैं
बारहा राहे वफ़ा में
छलनी हुआ दिल खोलते हैं
मुमक़िन नहीं इश्क़
अब ख़्वाहिशों की शहादत से।

थी तमन्ना कि मेरे दिल में
तेरी धड़कनें शामिल हों
तू धड़के मेरी जीस्त में
हम दीवानेपन में कामिल हों..

पर ये हो न सका
ख़ाक हुए ख़्वाब अना के शोलों में
मुमक़िन नहीं इश्क़
अब ख़्वाहिशों की शहादत से।

ये दूरी महज़ ज़ाहिर
नहीं दरमियां बातिल दूरी है
कुछेक तुम्हारी तो
कुछेक मेरी क़ातिल मज़बूरी है..

मुमक़िन नहीं इश्क़
अब ख़्वाहिशों की शहादत से
दूर बहुत दूर जा रहे हैं
सनम हम अपनी आदत से।