मुमकिन नहीं कि कोई हक़ीक़त बयान हो
हर आदमी शहर में अगर बेज़ुबान हो
रातों को जाग-जाग कर यूँ काटते हैं लोग
जैसे कि सुबह कोई कड़ा इम्तहान हो
भूखों की भुखमरी का ज़रा जायज़ा तो लें
जिनको तरक्कियों पे बड़ा इत्मीमान हो
हैरत है अपना हक़ तो कोई माँगता नहीं
बस लोग मुन्तज़िर हैं ख़ुदा मेहरबान हो
इतनी-से दास्तान है अपनी तो इस जगह
अपने ही घर में जैसे कोई मेहमान हो