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मुमकिन नहीं कि बज़्म -ए-तरब फिर सजा सकूँ / जगन्नाथ आज़ाद

मुमकिन नहीं कि बज़्म-ए-तरब<ref>प्रसन्नता की सभा</ref> फिर सजा सकूँ
अब ये भी है बहुत कि तुम्हें याद आ सकूँ


ये क्या तिलिस्म<ref>जादू</ref> है कि तेरी जलवा-गाह<ref>वो स्थान जहाँ तू अपने जल्वे दिखाता है</ref> से
नज़दीक आ सकूँ न कहीं दूर जा सकूँ

ज़ौक़-ए-निगाह और बहारों के दरमियाँ
पर्दे गिरे हैं वो कि न जिन को उठा सकूँ

किस तरह कर सकोगे बहारों को मुतमईन<ref>संतुष्ट</ref>
अहल-ए-चमन जो मैं भी चमन को मना सकूँ

तेरी हसीं फ़िज़ा में मेरे ऐ नये वतन!
ऐसा भी है कोई जिसे अपना बना सकूँ ?

'आज़ाद' साज़-ए-दिल पे है रक़सां के ज़म-ज़मे
ख़ुद सुन सकूँ मगर न किसी को सुना सकूँ