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मुमकिन है / बुद्धिनाथ मिश्र

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लिख गई पूरी सदी
पागल हवा के नाम
राख में चिनगी दफ़न हो जाय
मुमकिन है ।

एक पहिया घूम
आया त्रासदी के पास
इस खुशी में बेतरह
रौंदे गये मधुमास
जंग खाये स्तोत्र
फिर गूँजे सुबह से शाम

सिर बँधी पगड़ी कफ़न हो जाय
मुमकिन है ।

सख्त हैं सच की तरह
होते नहीं दोहरे
आइनों से हैं बहुत
नाराज़ कुछ चेहरे
भीड़ की जागीर है
जंगल उठाओ जाम

आग बस्ती में सपन हो जाय
मुमकिन है ।

हर कलम की पीठ पर
उभरी हुई साटें
पूछतीं--हयमेध का
यह दिन कहाँ काटें
मंत्र,जो जयघोष में पिछड़े
हुए गुमनाम

यह हँसी चिढ़कर घुटन हो जाय
मुमकिन है ।