मुम्बई लोकल की औरतें / निलय उपाध्याय

वह लड़की
जो दरवाज़े के पास खड़ी कान में इयर-फ़ोन लगा
सुन रही है गाना और चिप्स भी खा रही है,
अगला स्टेशन आते जबरन आ जाएगी गेट पर
और हवा में इस तरह लहराएगा उसका आँचल
कि शर्माएँगे मेघ भी

उधर फ़ोन पर
हाफ़-पैट पहने अपने प्रेमी से बात कर रही है एक
कि चालीस मिनट बाद अँधेरी पहुँच जाएगी
वहीं पर आगे वाले
सिग्नल के नीचे करे इन्तज़ार

बीच में खड़ी एक
बता रही है एक कि पति की कमाई
ठीक-ठाक है, बच्चे भी कमा रहे हैं अच्छा-ख़ासा
मगर क्या करूँ घर में बैठकर इसलिए
नौकरी कर ली स्कूल की
बच्चो के साथ बहल जाता है दिन

ये मुम्बई लोकल की औरतें हैं
तेज़ चलती हैं, तेज़ बोलती हैं
दौड कर पकडती हैं ट्रेन
धक्का देकर चढती हैं, और गेट पर खड़ी
आती हुई ट्रेन के दरवाज़ों पर खड़े लड़कों का
उड़ाती हैं मज़ाक, तीन लोगों से प्यार कर
ठोक-बजा कर करती है शादी

ये मुम्बई लोकल की औरतें हैं
कम नहीं खाती,
ग़म नहीं खाती, गुस्सा आया
तो कर देती है नाक में दम, नहीं करती
छोटे-छोटे फ़ैसलों के लिए पति का इन्तज़ार
मन न हो खाना बनाने का तो बहाना नही बनाती
साफ़ कह देती है
पति से--
आज खाना लेकर आना

इन्हें देखकर
कई बार सोचती है मुम्बई की लोकल
कि काश होते उसके भी डैने, पटरी की जगह
होता उसका आसमान और वह उड़ती हुई
मुम्बई की इन लड़कियों को ले जाकर छिड़क देती
बीज की तरह
गाँव-गाँव शहर-शहर पूरे देश मे
ख़त्म हो जाती याचना, स्वतंत्रता और समानता की

सचमुच अगर होता ऐसा
कितना सुन्दर दिखता अपना देश

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