मुरझा गया लाल आग का फूल / कुमार कृष्ण
मित्र आप आए थे जिस जगह-
अब नहीं रहा वहाँ कोई घर
जिसमें रहती थीं सपनों की अलमारियाँ
सजे रहते थे दीवारों पर इन्द्रधनुष
गुनगुनाती थीं प्रज्ञाल की बाँसुरियाँ
जहाँ अन्दर ही अन्दर बहती थी सरस्वती
उस घर में थीं कविता कि अनेक सीढ़ियाँ
पत्नी के मन्दिर की खुशबू
लाल ईंटों का घर था लाल आग का फूल
मरे हुए पक्षी की तरह नज़र आ रहा है अब घर
कहीं धीमी न हो जाए राजा के रथ की रफ़्तार
इसीलिए तोड़ डाले घर
तोड़ डाली उम्मीद
तोड़ डाली खुशियों की रंग-बिरंगी छतरी
एक झटके में ख़त्म कर दीं चिरसंचित अभिलाषाएँ
मित्र, घबराये हुए शब्द भाग रहे हैं इधर-उधर
ढूँढ रहे हैं सिर छुपाने की जगह
ये क्या हो रहा है इस समय-
ईश्वर की अध्यक्षता में
बार-बार कहते थे भय भी शक्ति देता है
बन्धु, भय सबसे पहले मारता है विचार
फिर भाषा
बना देता है लहरों के राजहंस
किसी में हिम्मत नहीं कोई रोक सके-
पहाड़ चीरती, पेड़ काटती मशीनों के हाथ
ठोक सके कील राजा के जूतों में
लगातार चौड़ी हो रही है सड़क
ज़मीन से आसमान तक गूंज रहा है
बस एक ही शब्द
खबर का मुंह विज्ञापन से ढका है
गूंज रही हैं हर पर्दे पर
राजा के पराक्रम की कहानियाँ
झपकी-भर नींद में आ रही है बस एक ही आवाज़
बार-बार
घर टूटने की आवाज़
काश! यह आवाज़ बदल जाती किसी तस्वीर में
आवाज़ की तस्वीर बनाना-
इस समय राष्ट्रद्रोह है
मैं नहीं मरना चाहता-
राष्ट्रद्रोही के तमगे के साथ
मित्र, सच कहूं-
यह न तो शंखमुखी शिखरों पर बैठने का समय है
न ही अनुभव के आकाश में चाँद की
इबादत करने का
चलो घबराये हुए शब्दों को गर्म कपड़े पहनाएँ
बची हुई पृथ्वी पर उगाएँ उम्मीद के पेड़
नदी को छुपा लें घड़ों के अन्दर
पिला दें थोड़ा-थोड़ा प्रेम चिड़ियों को
वे ले जाएँ बहुत दूर उसे अपने पेट में छुपाकर
इस तरह से शायद बच जाए-
कुछ-न-कुछ इस धरती पर।