मुरली तेरा मुरलीधर / प्रेम नारायण 'पंकिल' / पृष्ठ - १६
बस अपने ही लिये रचा है तुमको प्रियतम ने मधुकर
अन्य रचित उसकी चीजों पर क्यों मोहित होता निर्झर
श्वांस श्वांस में बसा तुम्हारे रख अपना विश्वास अचल
टेर रहा है संततलब्धा मुरली तेरा मुरलीधर।।76।।
जीने की वासना न रख मत मरने की वांछा मधुकर
मात्र प्रतीक्षा में बैठा रह कब कैसी आज्ञा निर्झर
सोच जगत को बना जगत का उसको सोच उसी का बन
टेर रहा है चिंतनाश्रया मुरली तेरा मुरलीधर।।77।।
वैसे ही रह जग में जैसे रसना रहती है मधुकर
लाख भले घृत चख ले होती किन्तु न स्निग्ध कभीं निर्झर
इनसे उनसे तोड़ उसी से पंकिल नाता जोड़ सखे
टेर रहा भक्तानुकंपिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।78।।
कुटिल रीछनी यथा गुदगुदा करती प्राण हरण मधुकर
ललचा ललचा तथा मारती विषय वासनायें निर्झर
जग के कच्चे कूप कूल पर सम्हल सम्हल के बढ़ा चरण
टेर रहा है भ्रमोत्पाटिनी मुरली तेरा मुरलीधर।।79।।
मत अशान्त हो विलख न सोया है सच्चा प्रियतम मधुकर
दुख की श्यामल जलद घटा से ही झरता सुख का निर्झर
सुख उसका मुख चन्द्र कष्ट है उसकी कुंचित कच माला
टेर रहा है सर्वकामदा मुरली तेरा मुरलीधर।।80।।