मुर्गे / बरीस पास्तेरनाक/ अनिल जनविजय
बारिश होती रही सारी रात, पानी बिना रुके बहता रहा
अलसी के तेल का दिया कमरे में सारी रात दहता रहा
अपने कासनी घूँघट में से धरती धीरे-र्धीरे साँसें लेती रही
गर्म प्याले से उठती है भाप जैसे, धरा से धुआँ लहता रहा
कब अपना सिर उठाएगी घास, धरती से बाहर आएगी
कौन मेरी यह आशंका औ’ डर, गिरती ओस को बताएगा
पहले बोलेगा मुर्गा एक, ज़ोर से कुकड़ूँ-कू करके गुर्राएगा
फिर सारे मुर्गे बोल उठेंगे औ’ क्या सब-कुछ ख़त्म हो जाएगा ?
एक-एक कर गुज़रे वर्षों को, एक-एक कर चुनता हूँ
बारी-बारी से इन सालों में बीते अन्धेरे को धुनता हूँ
ये गुज़रे साल कुछ तो कहेंगे, बतलाएँगे बदलाव की बात
वर्षा, धरती औ’ प्रेम सहित सबका — बदल जाएगा रे ये गात !
1923
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : अनिल जनविजय
अब यही कविता मूल रूसी भाषा में पढ़िए
Борис Пастернак
Петухи
Всю ночь вода трудилась без отдышки.
Дождь до утра льняное масло жег.
И валит пар из-под лиловой крышки,
Земля дымится, словно щей горшок.
Когда ж трава, отряхиваясь, вскочит,
Кто мой испуг изобразит росе
В тот час, как загорланит первый кочет,
За ним другой, еще за этим – все?
Перебирая годы поименно,
Поочередно окликая тьму,
Они пророчить станут перемену
Дождю, земле, любви – всему, всему...
1923