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मुश्किल है बचना / अरविन्द श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
नैतिकता के अन्तर्गत
जो नियम व शर्तें रखी गई थीं
उन्हें ढोते रहने की ज़िम्मेदारी
किसी निविदा के तहत
मानव-संसाधन मंत्रालय ने
हमें नहीं सौपी थी और न ही
वैसे नागरिको को पारितोषिक देने की
घोषणा की थी
फिर भी
किसी सभ्य नागरिक को,
जिस तरह की दिनचर्या होनी चाहिए
मसलन कि साफ-सुथरा छोटा-सा मकान
रोज़ दाढ़ी बनाना
सुविधानुसार कमज़ोर दिखना
शाम होते ही घर में
चैनलों से दुनिया देखना
फ़ेसबुक पर बैठ जाना
कम बोलना, कम हँसना
और कम से कम राजनीतिक मसलों पर
बिल्कुल चुप्पी साध लेना
इन मापदंडों को फ़ुलफ़िल करते हुए भी
कहाँ बच पाते हैं हम
चौराहे पर दिन काटते
गुंडों की फब्तियों और अक़्सर
पुलिस की गुरेरती आँखों से ।