भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
मुसलसल हादसों से इस तरह खुद को बचाते हैं / चित्रांश खरे
Kavita Kosh से
मुसलसल हादसों से इस तरह खुद को बचाते हैं
कोई भी हो यकीं करने से पहले आज़माते हैं
ये मेरा मशवरा है तुम यकीं क़समो पर मत करना
मुहब्बत में क़सम झूठी हज़ारों लोग खाते हैं
तेरे गालों पे अश्कों के निशा करते है साबित
तेरी कजलाई आँखों से कभी आंसू भी आते हैं
नदी यॅू तो हमेशा साहिलों के बीच बहती है
मगर जब ज़िद पे आ जाये तो साहिल डूब जाते हैं
अगर मंजिल की उम्मीदें न हो तो मत भटकना तुम
उन्हें भूला नहीं कहते जो वापस लौट आते हैं