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मुहब्बत के फ़साने से न मैं वाक़िफ़ न तू वाक़िफ़ / जावेद क़मर

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मोहब्बत के फ़साने से न मैं वाक़िफ़ न तू वाक़िफ़
सितमगर इस ज़माने से न मैं वाक़िफ़ न तू वाक़िफ़

बता फिर कैसे होगी ख़त्म ये नफ़रत की तारीकी
नए सूरज उगाने से न मैं वाक़िफ़ न तू वाक़िफ़

लगे कैसे पता है कौन अपना कौन बेगाना
किसी को आज़माने से न मैं वाक़िफ़ न तू वाक़िफ़

बता फिर किस ने भड़काई चमन में आग नफ़रत की
किसी का घर जलाने से न मैं वाक़िफ़ न तू वाक़िफ़

कहाँ वह नग़्मगी मिलती है अब सेहन-ए-गुलिस्ताँ में
कोई नग़्मा सुनाने से न मैं वाक़िफ़ न तू वाक़िफ़

जनम दे नफ़रतों को और तअ' स्सुब को जो फैलाए
सबक़ ऐसा पढ़ाने से न मैं वाक़िफ़ न तू वाक़िफ़

नहीं है काम कोई भी सियासत में मिरा तेरा
किसी पर ज़ुल्म ढाने से न मैं वाक़िफ़ न तू वाक़िफ़

'क़मर' हक़ कौन फिर छीने मिला कर आँख बातिल से
नज़र उस से मिलाने से न मैं वाक़िफ़ न तू वाक़िफ़