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मूर्ख / मनोज शर्मा

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दुनिया के सबसे तिरस्कृत मनुष्य हैं
मूर्ख
इनकी परिभाषाएँ बनायी जाती हैं
और ख़ुद को तो कोई
मूर्ख कहाना ही नहीं चाहता
यह, अलग तरह का वर्गसंघर्ष है

मूर्ख
निर्धारित किए जाते हैं
बुद्धिमान, स्वयं को जन्मजात मानते हैं
चक्र घूमता है, बस घूमता जाता है
यह कोई प्रामाणिक क्रिया नहीं है

जैसे, कविता में मूर्ख हूँ मैं
बच्चा, बड़ों की महफ़िल में
नृतकों के कबीले में
नौसिखिया नचार
मूर्खों के बिना
कुछ सिद्ध नहीं किया जा सकता

मूर्ख
इतिहास का सबसे निरीह प्राणी है
हालांकि, उन्हें जितनी कथाएँ याद होती हैं
ऐसी तमाम कथाएँ
बुद्धिमानों को नसीब नहीं
बुद्धिमानों का आलोक होता है
अपने दिन रात होते हैं
वे, ख़ुद को समय की नब्ज़ मानते हैं

मूर्ख
फूलों को गवारों-सा सुच्चा प्यार करते पाए जाते हैं
मूर्खों की माताएँ
हरपल, उनके साथ होती हैं

बुद्धिमान
जो रब्ब स्थापित करते हैं
मूर्खों को उन्हें ध्याना पड़ता है
मूर्ख, खेत जोतते हैं
बुद्धिमान, पकवान खाते हैं
सुर ज्ञान से परे
मूर्ख
कभी कभार देर रात गाते भी हैं
रोते हैं, रुलाते हैं

जीवन के जोखिमों से परे
बुद्धिमान, मानक हैं
भाषा मर्मज्ञ
स्मृतियों से ही नहीं
जुमलों से लबरेज़
किसी दहशत से आते हैं
भौंचक कर जाते हैं
उनके अपने समाज हैं
जिनका कोई सरदार नहीं होता
बुद्धिमान, कभी देशहित में
फांसी नहीं झूलते

बुद्धिमानों का चेहरा
दहक जा चुके अंगार-सा होता है
असंख्य पुस्तकें, सिद्धांत, नियम
उनके सामने नतमस्तक पड़े रहते हैं
समय का तराज़ू हैं
तय करते हैं
कैसे बुने साहित्य में जीवन
कैसा तो चित्र बनाएँ
चाय में कैसा दूध हो
भोजन में स्वाद कैसा
संगीत में अलाप
जीवन में मिलाप
बुद्धिमानों का मसीहापन निर्विवाद है

मूर्ख
जिसने अभी सभ्य सभा में पाद दिया था
बुद्धिमानों के सजे टेबल से
जग उठा, गटागट पानी गटक जाता है

मैं
मौलिकता को फिर से समझना चाहता हूँ
नफीस, बुद्धिमता को परखता
और अंततः इन्हें जानता पहचानता
उजड्ड मूर्खता में ही
बने रहना चाहता हूँ!