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मृत्युशय्या / सुभाष काक

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मृत्यु एक रहस्य है

जिसे मैं व्यर्थ नाम से बांधता हूं।


जीवन एक बांध है

और मृत्युशय्या पर बांध की दरारें

दीखती हैं,

बीते दिनों का आभास,

कुछ क्षण।

एक आशा उठती है

कदाचित स्मृति का सीमेंट

बांध की दरारों को जोड लेगा।


पुष्पों से छिपे शव को देखकर

विचार उठता है

हर क्षण

रंगे कागद पर नल की बूंदों की तरह

भीतर चित्र मिटाता है।


शब्द व्यर्थ हैं

जब हम रो सकते हैं,

पर मां की गोद का

चैन कहां।

केवल बीते दिन की सुगन्ध

बची है।