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मृत्यु-दौड़ / रमेश ऋतंभर

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वह दौड़ रहा है
वह पूरी जान लगाकर दौड़ रहा है
पाँव लड़खड़ा रहे हैं
कंठ सूख रहा है
आँखों से चिंगारियाँ निकल रही हैं
फिर भी किसी अदृश्य शक्ति के सहारे
वह लगातार दौड़ रहा है
उसकी आँखों के आगे बूढ़े पिता का थका-झुर्रीदार चेहरा कौंध रहा है
उसकी आँखों के आगे बीमार माँ की खाँसती हुई सूरत झलक रही है
उसकी आँखों के आगे अधेड़ होती कुंवारी बहन का उदास मुखड़ा तैर रहा है
उसकी आँखों के आगे वह दरोगा कि वर्दी में ख़ुद खड़ा दिखाई दे रहा है
उसकी आँखों के लक्ष्य-रेखा करीब आती हुई नज़र आ रही है
उसकी आँखें धीरे-धीरे मुंदती जा रही है
और सारा दृश्य एक-दूसरे में गड्मड हो रहा है
अब उसे कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है
वह दौड़-भूमि में भहरा कर गिर पड़ा है
और उसकी चेतना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है
माँ-पिता, बहनें, दोस्त सब
एक-एक कर याद आ रहे हैं
उसकी चेतना में लक्ष्य-रेखा धंस-सी गयी है
और वह अपने को लगातार दौड़ता हुआ पा रहा है
उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके हैं
अब वह अपनी मृत्यु में दौड़ रहा है
वह लगातार दौड़ रहा है।