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मेंहदी-2 / नज़ीर अकबराबादी

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मियां यह किस परी के हाथ पर आशिक़ हुई मेंहदी।
कि बालिन<ref>गुप्त रूप</ref> में हुई है सुर्ख़ ज़ाहिर में हरी मेंहदी॥
करे खूनीं दिलों से क्यूं न हर दम हमसरी<ref>बराबरी</ref> मेंहदी।
कही, कुचली गई, टूटी, छनी, भीगी, पिसी, मेंहदी॥
जब इतने दुख सहे तन उसके हाथों में लगी मेंहदी॥1॥

हिना की मछलियां उसके कफ़े रंगी में जो देखीं।
निगाह में आनकर उस दम अ़जब रंगीनियां झमकीं॥
कहूं क्या-क्या मैं उस मेंहदी भरे हाथों की अब तेज़ी।
शफ़क़ में डूब कर जूं पंजएख़ु रर्शीद<ref>सूर्य का हाथ</ref> हो रंगी॥
चमक में रंग में सुर्खी में कुछ ऐसी ही थी मेंहदी॥2॥

हतेली चांद सी हो जिन की और नाखु़न सितारे हों।
वह पतली उंगलियां जिनसे नज़ाकत के सहारे हों॥
तलाईनुक़रई<ref>सोने-चांदी की</ref> हीरों के छल्लों के करारे हों।
जो गोरे गोरे हाथ और नर्मोनाजु़क<ref>अत्यन्त कोमल</ref> प्यारे प्यारे हों॥
तो बस वह जान हैं मेंहदी की और उनका है जी मेंहदी॥3॥

वह पहुंचे जिनमें पहुंची सो नियाज़ोइज्ज़<ref>नम्र निवेदन</ref> से पहुंची।
और इन पोरों के मिलने से बढ़ी है शान छल्लों की॥
अ़जब तुम भीगती हो और अबस पत्थर से हो पिसती।
कफ़ेनाजुक<ref>कोमल हाथ</ref> पर उसके तो है असली रंग की सुखऱ्ी॥
तुम्हारी दाल यां गलती नहीं सुनती हो बी मेंहदी॥4॥

जो देखा मैंने उस मेंहदी भरे हाथों का हिल जाना।
अंगूठी बांक छल्ले आरसी का फिर नज़र आना॥
मेरा दिल हो गया उस शम्मा रू चंचल का परवाना।
भला क्यूंकर न हूं यारो मैं उसको देख दीवाना॥
कि होवें जिस परी के परी हाथ और परी मेंहदी॥5॥

यकायक देखकर मुझको वह चंचल नाज़नी भरमी।
उधर मैंने भी देखा खू़ब उसको करके बेशर्मी॥
कहूं क्या क्या मैं उसकी अब नज़ाकत वाह और नरमी।
हुई यां तक उसे मेरी निगाहे गर्म की गर्मी॥
कि दस्ती पा में उसके देर तक मसली गई मेंहदी॥6॥

कहां तक गुलइज़ारों के भी हाथों को रसाई है।
कि जिनके वास्ते अल्लाह ने मेंहदी बनाई है॥
यह सुर्खी लाल ने पंजएमरजां<ref>मूँगे के हाथ</ref> ने पाई है।
”नज़ीर“ उस गुलबदन ने और ही मेंहदी लगाई है॥
मुबारक बाद अच्छा वाह वा ख़ासी रची मेंहदी॥7॥

शब्दार्थ
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